Poet – Kautilya Gaurav
कहती सुनती बातों सी…
जैसे गहरी मेरी रातों सी…
ख़ामोशी से भरी भरी…
ख़ाली मेरे हाथों सी…
कभी कभी कहीं जो मिलती थी…
ख़ामोशी सी रातों में…
जाने कहाँ मुझसे गुम हुई…
कुछ बातें तेरी बातों सी…
Poet – Kautilya Gaurav
दरिया सा एक सब्र का…
बहता रहा मुझमें कहीं…
बहोत दिन हुये…
अब न जाने कितने…
ख़्वाब कितने थे अब…
जाने क्या कहिये…
कुछ एक बातें कभी कभी…
जैसे लगता है कि…
दोहराती हैं खुद को…
बहोत दिन हुये…
मेरी बातों को…
मुझमें कहीं रूबरू हुये…
बातें मेरी अब…
बड़ी बेनूर सी हैं…
बहोत दिन हुये…
अब न जाने कितने…
Poet – Kautilya Gaurav
लकीरों से भरता रहा हथेलियों को…
जाने कौन सी कहीं किसी मंज़िल तक हो जाती…
मंज़िलों से कहीं आगे तक है जाता…
फिर क्युं ये मेरा रास्ता…
कभी कुछ ज़हन में जो था मैंने सोचा…
एक रास्ता वहाँ से जैसे चल पड़ा…
मंज़िलों के रास्ते बनाता चला…
हथेलीयों पे लकीरें को मिलाता चला…
कभी शायद कहीं किसी मंज़िल के रास्ते पे…
मैं कभी कहीं खुद से मिलूँगा…
लकीरों की हद से कही बहोत आगे…
मंज़िलों से कहीं बहोत आगे तक है जाता…
मेरे ज़हन में ये मेरा रास्त..