खुद की तलाश मे भटकती सी “मैं ”
अनगिनत, अनन्त, असीम सवालो के संग!
न जाने किस अधूरे पन को भरती सी- मैं |
कई रिश्ते, जज्बात, रास्ते,
और मंजिलों से गुजरती सी मैं |
न जाने कितने एहसासों मै संवरती बिखरती सी “मैं ”
कहा किस डगर किधर जा रही हूँ |
क्या है? मेरा,
जिसे कभी खो रही हूँ |
तो कभी पा रही हूँ।
जीवन का छोर,
न जाने कब कहां कैसा है?
पर
इस नामालूम “मैं ” को
जीवन भटकाव की भूलभुलैया में
इतना तो मालूम हो गया कि
अच्छा – बुरा, काम – निश्चय ही
जीवन है,
और
शायद यही जीवन-दिशा हूँ
” मैं “।