तू तो वो जालिम है जो दिल में रह कर भी मेरा न बन सका , ग़ालिब
और दिल वो काफिर, जो मुझ में रह कर भी तेरा हो गया..
हजारों ख्वाहिशें ऐसी की हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान , लेकिन फिर भी कम निकले..
वो आये घर में हमारे , खुदा की कुदरत है
कभी हम उन्हें कभी अपने घर को देखते है..
पीने दे शराब मस्जिद में बैठ के , ग़ालिब
या वो जगह बता जहाँ खुदा नहीं है..
हुई मुद्दत के ग़ालिब मर गया, पर याद आती है
जो हर एक बात पे कहना की यूं होता तो क्या होता..
इश्क़ पर जोर नहीं , यह तो वो आतिश है, ग़ालिब
के लगाये न लगे और बुझाए न बुझे..
आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी जुलफ के सर होने तक
हमने माना की तग़ाफ़ुल न करेंगे लेकिन
खाक हो जायगे हम तुम्हे खबर होने तक
आशिक़ी सब्र -तलब और तमना बेताब
दिल का क्या रंग करू, खून-ऐ-जिगर होने तक